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आर्त्तत्राणस्तोत्रम् अप्पयदीक्षितविरचितम्

 अप्पयदीक्षितविरचितम् क्षीराम्भोनिधिमन्थनोद्भवविषात् सन्दह्यमानान् सुरान् ब्रह्मादीनवलोक्य यः करुणया हालाहलाख्यं विषम् ।
 निःशङ्कं निजलीलया कवलयन् लोकान् ररक्षादरात् आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ १॥ 

क्षीरं स्वादु निपीय मातुलगृहे गत्वा स्वकीयं गृहं क्षीरालाभवशेन खिन्नमनसे घोरं तपः कुर्वते ।
 कारुण्यादुपमन्यवे निरवधिं क्षीराम्बुधिं दत्तवान् आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ २॥

 मृत्युं वक्षसि ताडयन् निजपदध्यानैकभक्तं मुनिं मार्कण्डेयमपालयत् करुणया लिङ्गाद्विनिर्गत्य यः । नेत्राम्भोजसमर्पणेन हरयेऽभीष्टं रथाङ्गं ददौ आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ ३॥ 

ऊढं द्रोणजयद्रथादिरथिकैः सैन्यं महत् कौरवं दृष्ट्वा कृष्णसहायवन्तमपि तं भीतं प्रपन्नार्त्तिहा । 
पार्थं रक्षितवान् अमोघविषयं दिव्यास्त्रमुद्घोषयन् आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ ४॥ 

बालं शैवकुलोद्भवं परिहसत्स्वज्ञातिपक्षाकुलं खिद्यन्तं तव मूर्ध्नि पुष्पनिचयं दातुं समुद्यत्करम् । 
दृष्ट्वाऽऽनम्य विरिञ्चिरम्यनगरे पूजां त्वदीयां भजन् आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ ५॥ 

सन्त्रस्तेषु पुरा सुरासुरभयादिन्द्रादिवृन्दारकेऽ- वृन्दारके अश्वारूढो श्वारूढो धरणीरथं श्रुतिहयं कृत्वा मुरारिं शरम् । रक्षन् यः कृपया समस्तविबुधान् जित्वा पुरारीन् क्षणात् आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ ६॥

 श्रौतस्मार्त्तपथे पराङ्मुखमपि प्रोद्यन्महापातकं विश्वातीतमपत्यमेव गतिरित्यालापयन्तं सकृत् ।
 रक्षन् यः करुणापयोनिधिरिति प्राप्तप्रसिद्धिः पुरा ह्यार्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ ७॥ 

गाङ्गं वेगमवाप्य मान्यविबुधैः सोढुं पुरा याचितो दृष्ट्वा भक्तभगीरथेन विनतो रुद्रो जटामण्डले । 
कारुण्यादवनीतले सुरनदीमापूरयत् पावनीम् आर्त्तत्राणपरायणः स भगवान् गङ्गाधरो मे गतिः ॥ ८॥ 

॥ इति श्रीमदप्पयदीक्षितविरचितं गङ्गाधरस्तोत्रम् अथवा आर्त्तत्राणस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

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