पंचमं स्कन्दमातेति
देवी का पांचवां स्वरूप : ‘स्कन्दमाता’
प्रकृति माता के समान वन्दनीया है
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देवी का पांचवां रूप ‘स्कन्दमाता’ का है। आज प्रकृति परमेश्वरी के उसी स्वरूप की आराधना की जा रही है। शैलपुत्री ने ब्रह्मचारिणी बन कर तपस्या करने के बाद शिव से विवाह किया और बाद में ‘स्कन्द’ उनके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ इसलिए इस देवी को 'स्कन्दमाता' कहते हैं। पौराणिक वर्णन के अनुसार इस देवी की तीन आंखें और चार भुजाएं हैं तथा गोद में 'स्कन्द' नामक बालक विराजमान है।
‘स्कन्दमाता’ नामक प्रकृति देवी की चार भुजाएं हैं। उन्होंने ऊपर वाली दो भुजाओं में ऐश्वर्य और समृद्धि का प्रतीक कमल पुष्प को धारण कर रखा है नीचे वाली दाहिनी भुजा से धनुर्धारी बालक 'स्कन्द' को पकड़ रखा है तथा बायीं भुजा वरदायी मुद्रामें दर्शाई गई है। नवरात्र के पांचवें दिन निम्न मंत्र से ‘स्कन्दमाता’ देवी का ध्यान करना चाहिए -
“सिंहासनगता नित्यं
पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी
स्कन्दमाता यशस्विनी।।”
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अर्थात् सदा सिहासन में विराजमान और दोनों हाथों में कमल पुष्पको धारण करने वाली यशस्विनी देवी ‘स्कन्दमाता’ मेरा कल्याण करें।
‘स्कन्दमाता’ का पर्यावरणवैज्ञानिक स्वरूप
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पर्यावरण विज्ञानके संदर्भ में ‘स्कन्दमाता’ प्रकृति को माता के समान देखने का भाव अभिव्यक्त करती है। अथर्ववेद में ‘माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः’ का प्रकृति दर्शन भी देवी के इस पौराणिक चरित्र में साकार हुआ है। नवरात्र के शुभागमन पर ‘देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र’ के माध्यम से हर वर्ष ‘स्कन्दमाता’ का ध्यान करते हुए यही कामना की जाती है कि- ‘हे जगज्जननी प्रकृति माता ! मनुष्य जाने या अनजाने स्वार्थवश प्रकृति के प्रति अपराध करता रहता है परंतु आप अपने इन कुपुत्रों के अपराध क्षमा कर दो। कारण यह है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कुमाता कभी नहीं होती’-
“तदेतत् क्षन्तव्यं जननि
सकलोद्धारिणिशिवे।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि
कुमाता न भवति।।”
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भारत के प्राचीन पर्यावरण चिन्तकों का मानना था कि प्रकृति माता के समान सभी प्राणियोंको जन्म देती है और उनके पालन पोषण की व्यवस्था भी करती है इसलिए वह माता के समान वन्दनीया है धरती को मां और स्वयं को उसका पुत्र मानने की वैदिक अवधारणा भारत के पर्यावरण विज्ञान का मूल विचार है तथा नवरात्र में 'स्कन्दमाता' की उपासना उसी की अभिव्यक्ति है। इसी पर्यावरण चेतना के फलस्वरूप भारत का पर्यावरणवादी गंगा, यमुना, सरस्वती आदि सभी नदियों में भी मातृभाव के दर्शन करता है।
परन्तु विडम्बना यह है कि आज प्रकृति विरोधी कुपुत्र प्रकृति माता की गोद में बैठकर भी प्रकृति विध्वंश का उत्पात मचाते आए हैं, उसका उत्पीड़न और शोषण करते हैं। ये पर्यावरण विरोधी असुर रत्नगर्भा वसुन्धरा का पूरा दुग्ध एक बार में ही दोहन करके असली पृथ्वीपुत्र किसानों को भूखा रखने की अर्थनीति का नियोजन करते आए हैं। यहीं से प्रारम्भ होता है देव-दानव युद्ध का महाताण्डव। दुर्भाग्य से यह देवासुर संग्राम हिमालय से ही प्रारम्भ होता है। 'स्कन्द' देवताओं की सेना का संचालन करते हैं और प्रकृति विरोधी तारकासुर जैसे राक्षसों का संहार भी ‘स्कन्दमाता’ की देवी शक्ति द्वारा होता है।
हम पर्यावरण की अधिष्ठात्री प्रकृति परमेश्वरी ‘स्कन्दमाता’ से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे हिमालय पर्यावरण की रक्षा करे-
“या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥”
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