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षष्ठं कात्यायनीति च’ देवी का छठा रूप: ‘कात्यायनी’ ॥ ॥ तपोवन संस्कृति की उद्भाविका देवी॥


षष्ठं कात्यायनीति च’ 
॥ देवी का छठा रूप: ‘कात्यायनी’ ॥
॥ तपोवन संस्कृति की उद्भाविका देवी॥


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आज तपोवन संस्कृति की उद्भाविका ‘कात्यायनी’ देवी के माध्यम से पर्यावरण के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना बहुत आवश्यक हो गया है ताकि जल, जंगल, जमीन से जुड़े प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन रोका जा सके। प्रकृति को सम्मान देना तथा उसे एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित करना हमारा राष्ट्रधर्म होना चाहिए।🎁
आज नवरात्र के छठे दिन देवी के छठे रूप ‘कात्यायनी’ ‘की पूजा-अर्चना की जा रही है।कात्यायनी देवी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक समय ‘कत ’नाम के प्रसिद्ध ॠषि के पुत्र ॠषि ‘कात्य’ हुए तथा उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध ‘कात्य’ गोत्र से उत्पन्न विश्वप्रसिद्ध ॠषि कात्यायन हुए थे। पौराणिक मान्यता के अनुसार कात्यायन ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके आश्रम में ब्रह्मा, विष्णु और शिव के तेज से कात्यायनी देवी का प्रादुर्भाव हुआ था (वामनपुराण, 19.7)। महर्षि कात्यायन ने इनका पुत्री के रूप में पालन-पोषण किया तथा उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को ‘कात्यायनी’ कहा जाने लगा।
पौराणिक मान्यता है कि जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब ऋषियों के संकटों को दूर करने लिए तथा महिषासुर का विनाश करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और प्रताप का अंश देकर इस देवी को महर्षि कात्यायन के आश्रम में उत्पन्न किया था। महर्षि कात्यायन जी की प्रबल इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। इसके लिए उन्होंने देवी की कठोर तपस्या की । देवी भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार की तथा अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के पश्चात शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, दशमी को देवी ने महिषासुर का वध किया और देवों को महिषासुर के अत्याचारों से मुक्त किया। वामनपुराण के अनुसार यह कात्यायनी देवी विन्ध्य पर्वतवासिनी हो गई। उसके ऊर्ध्व शिखर पर ऋषि-मुनियों द्वारा उपास्य कात्यायनी देवी ने दुष्ट दानवों का विनाश किया था-
''तस्योर्ध्वशृङ्गे मुनिसंस्तुता सा दुर्गा
स्थिता दानवनाशनार्थम्’।" (वामन.,19.36)
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वृन्दावन स्थित पीठ में ब्रह्मशक्ति महामाया माता कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध है- ‘व्रजे कात्यायनी परा ’। वृन्दावन का यह कात्यायनी पीठ भारतवर्ष के उन अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक प्राचीन सिद्धपीठ है। भगवान श्री कृष्ण को पाने की लालसा में ब्रजांगनाओं ने अपने हृदय की लालसा पूर्ण करने हेतु यमुना नदी के किनारे से घिरे हुए राधाबाग़ नामक स्थान पर श्री कात्यायनी देवी का पूजन किया था।वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध के बाईसवें अध्याय में गोपियों द्वारा भगवती कात्यायनी के पूजन से भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त करने का सुन्दर वर्णन आया है-
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:॥”
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हे कात्यायनि! हे महामाये! हे महायोगिनि! हे अधीश्वरि! हे देवि! नन्द गोप के पुत्र को हमारा पति बनाओ हम आपका अर्चन एवं वन्दन करते हैं।
 दुर्गासप्तशती में भी नन्द गोप के घर में यशोदा के गर्भ से अवतार लेने का उल्लेख मिलता है-
‘नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।’
देवी कात्यायनी अमोघ फलदायिनी मातृशक्ति हैं। इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के अंतःकरण में अद्भुत शक्ति का संचार होता है। इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है। इस योगमुद्रा मंथ साधक को सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं और वह अलौकिक तेज से युक्त हो जाता है।माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान दीप्तिमान है। यह अपने प्रिय वाहन सिंह पर विराजमान रहती हैं। इनकी चार भुजाएं भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का पुष्प है। नवरात्र के छठे दिन निम्न मंत्र से कात्यायनी देवी का ध्यान करना चाहिए -
“चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।”

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अर्थात् जिनके करकमलों में चमकती हुई तलवार है, वे श्रेष्ठ सिह की सवारी करने वाली दानव विनाशिनी ‘कात्यायनी’ देवी हमारा कल्याण करें।
‘कात्यायनी’ का पर्यावरण वैज्ञानिक स्वरूप

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प्रकृति परमेश्वरी ‘कात्यायनी’ का पर्यावरण वैज्ञानिक स्वरूप आश्रमों और तपोवनों से उद्भूत भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपराओं की ओर प्रेरित करता है। पुरातनकाल में भारतवर्ष में तपोवनों का जाल बिछा हुआ था।तपोवन ऋषि-मुनियों के निवास करने और तपस्या करने के स्थान होने के अतिरिक्त जीवन और समाज की आचार व्यवस्था, अध्यात्म-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण विज्ञान की आचार संहिता बनाने के भी केन्द्र स्थान हुआ करते थे। आश्रमों और तपोवनों में बनाए गए जीवन मूल्यों से भारतीय समाज आज भी प्रेरणा व मूल्य बोध प्राप्त करता रहा है। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में उल्लिखित दण्डकारण्य, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत में उल्लिखित खांडव वन, आदि वन्यखंडों से पुरातन भारतवर्ष में तपोवनों की महत्ता का पता चलता है।
नैमिषारण्य तपोवन में सूतजी के नेतृत्व में शौनक आदि सहस्रों ऋषि-मुनियों ने जल जंगल जमीन से जुड़े मानव अधिकारों पर एक लंबा पौराणिक संवाद किया था । संस्कृत के विशाल वाङ्मय की रचना इन तपोवनों में ही हुई है। तपोवन में पूर्ण सुसंस्कृत और विकसित समाज को लक्ष्य करके प्रकृति प्रेमी और पर्यावरण मित्र जीवन दर्शन के सिद्धांत स्थापित किए गए थे जिनकी वजह से भारतवर्ष को प्रतिष्ठा मिली और वह जगद्गुरु माना जाने लगा।
पर कालांतर में तपोवनों की यह गौरवमयी भारतीय परंपरा बाद में क्षीण होती गई। भारत में जैसे-जैसे कृषि भूमि और महानगर संस्कृति का फैलाव हुआ तथा जंगल कम होते गए वैसे-वैसे पर्यावरणनिष्ठ जीवन मूल्यों का क्षरण होता चला गया और भारत आज विश्व के सर्वाधिक पर्यावरण प्रदूषित देशों में गिना जाने लगा। आज हम ऐसे मोड़ पर आ गए हैं कि जल जंगल जमीन तीनों ही अपना अस्तित्व बचाने के संकट से गुजर रहे हैं। यह कितना दुःखद है कि जिन वनों और तपोवनों में हमने कभी अद्भुत पर्यावरण मूलक सांस्कृतिक जीवन दर्शन का विकास करते हुए शिक्षा, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का कीर्तिमान स्थापित किया था, उन्हीं वनों को बचाने के लिए आज कानून बनाने की आवश्यकता आ पड़ी है।
कालिदास ने भी अपने विश्वप्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् में तपोवन संस्कृति का मनोहारी वर्णन किया है। महाकवि कालिदास ‘कुमारसंभवम्’ महाकाव्य में हिमालय को ‘देवतात्मा’ इसलिए कहते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में यह पर्वत मिट्टी, पत्थर और बर्फ से बना मात्र एक बर्फीला पहाड़ नहीं बल्कि आदिकाल से ही इस हिमालय पर्वत ने भारतवर्ष को इतिहास व तपोवन संस्कृति के स्रोत दिए, हवा, पानी, औषधि जैसी जीवनदायी वस्तुओं का भण्डार दिया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि आकाश गंगा की निर्मल धारा इसे पवित्र बनाती है और सप्तर्षि प्रतिदिन पुष्प चढ़ाकर इसकी पूजा-अर्चना करते हैं।किन्तु कालिदास हिमालय के पवित्र होने का सबसे बड़ा कारण यह मानते हैं कि आदिशक्ति पार्वती ने हिमालय के शिखर पर उग्र तपस्या करके इसको सर्वाधिक पावन बना दिया है तथा प्रकृति परमेश्वरी की यही तपस्याजन्य पवित्रता हिमालय को देवभूमि सिद्ध करती है-


“विकीर्णसप्तर्षिबलिप्रहासिभिस्तथा
न गांगैः सलिलैर्दिवश्च्युतैः।
यथा त्वदीयैश्चरितैरनाविलै-
र्महीधरः पावित एष सान्वयः।।”
- कुमारसंभव,5.37

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हिमालय के मुकुटाकार शैलशिखरों को भेदकर निकलने वाली नदियों के स्रोतों, उनके मनोहारि जल-प्रपातों, सरोवरों, निकुजों, क्रीडा-वनों और शान्त आश्रमों की तपोभूमियों में सिंह -शावकों के साथ क्रीड़ा करते तपोवन बालकों का कालिदास के साहित्य में जिस मनोयोग से प्राकृतिक वर्णन आया है उसके माध्यम से आज से डेढ़ हजार वर्ष पूर्व महाकवि कालिदास ने तपोवन संस्कृति की एक ऐसी काव्यमयी प्रशस्ति लिख डाली थी जिसे हम यदि इस देश के पर्यावरण और प्रकृति संरक्षण से जुड़ी राष्ट्रीय धरोहर मानें तो अत्युक्ति न होगी।
वस्तुतः, हिमालय की तपोवन संस्कृति के साथ हमारा सौहार्द-भाव आज का नहीं बल्कि अनादि काल से चला आ रहा है। किसी देवयुग में जब देवासुर संग्राम की परिस्थितियां उभरी थीं, गंगा-यमुना के उत्तरापथ में संस्कृति और सभ्यता के तटों का निर्माण हुआ था तथा राजहंस अपनी वार्षिक यात्रा के लिए मानसूनों के साथ कैलाश मानसरोवर के लिए चल पड़े थे, तभी से हिमालयीय तपोवन संस्कृति के साथ हमारा सख्यभाव शुरू हो गया था। कालिदास हिमालय के साथ इसी चिरंजीवी मैत्री का सन्देश अपने पाठकों तक पहुंचाते आए हैं। आज तपोवन संस्कृति की उद्भाविका ‘कात्यायनी’ देवी के माध्यम से पर्यावरण के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना बहुत आवश्यक हो गया है ताकि जल जंगल जमीन से जुड़े प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक दोहन रोका जा सके। प्रकृति को सम्मान देना तथा उसे एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित करना हमारा राष्ट्रधर्म होना चाहिए।
पर्यावरण की अधिष्ठात्री प्रकृति परमेश्वरी ‘कात्यायनी’ देवी से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे विश्व पर्यावरण की रक्षा करे हमें महानगरीय प्रदूषण से मुक्त रखे और हमसे अनजाने में जो कोई भी गलती हुई है या प्रकृति विरोधी अपराध हुआ है तो उसे क्षमा कर दें -

“तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।”

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